बस गुलाब का काटा था।


उस बंद दरवाजे पे
आज दस्तक आया
वो जिंदगी ही थी
जिस्ने मुजे फिर्से अकेला पाया
बोहोत से गुलाब
बिखरा कर गायी थी
अखिर इंसान हू
बिनादेखे सब समेट लया
हर एक गुलाब को
बोहोत संभाला, सजया
पर दूर से मुस्कुराती
जिंदगी को ना समज पाया
दोस्ती, प्यार, दुश्मन ऎसे
रिश्तों सा एक एक गुलाब था
उनके साथ बिताया
हर एक लम्हा खास था
कुछ मुड़जा गऐ,
कुछ अंजाने में कुचले गऐ,
तो कुछ जानबूझ कर...
सब का साथ जब छुट्टा
तो उस चाहते गुलाब को पास लाया
उसने भी गुरूर के साथ बताया
' आखिर दोस्त कि याद आनी ही थी
तो उन सब को समेटकर क्या पाया ? '
दरवाजे के उसपार खड़ी
ज़िन्दगी को जब वो गुलाब दिखाया
उसके मुस्कान में सब समझ आया
जिन सच्चे दोस्तों को
उन गुलाबो के रूप में था गवाया
उनका ऎहसास इस चाहते
गुलाब ने दिलाया...।
फिर ज़िन्दगी ने मुस्कुराया
और धीमे से बताया
जिसे मैंने अपना था बनाया
वो उन बिखरे गुलाबो मैं से
गुलाब नहीं, बस गुलाब का काटा था
जिसे मैं पहेचान ना पाया...।

                                - निशांत देवेकर



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