ठंडी चाय...


कहीं दिनों बाद आज चाय बनाई,
खुर्सी का सहारा लेकर
मैं थोड़ा फुसफुसायी,
फिर किसी से बात करनी चाही,
घर के किसी कोने से
"अभी ना जाओ छोड़कर के दिल
अभी भरा नहीं"
रेडिओ की धुन लहराई,
खिड़की पे दस्तक देकर
हवा ने भी गालो को चूमने की
ख्वाइश जतायी,
और उसी खिडकी के कोनेसे टंगी तुम्हारी
वो शर्ट मेरे बाहों में भर आयी,
और अब
मेरे आखोंमे नमी,
दिलमें उसके लिए जज़्बात
आते आते ही
दिमाग ने "अब क्या ही फर्क पड़ता है."
की दास्ता सुनायी...
क्यों की अब उसकी याद आयेगी,
फिर वो याद
थोड़ा हसाएगी,
बोहोत ज्यादा रुलाएगी,
फोन फोटो गैलरी के
उस फोल्डर में बसी
जख्मों को सेहेलाएगी,
अलमारी में रखें उसकी
चिजो को कमरे में बिखराएगी,
फिर मैं वो आसू छुपाउंगी,
छुपाने के बाद भी
किसी ना किसी को बताना चाहूंगी,
दोस्त होगी तो थोड़ा और रोऊंगी,
रिश्तेदार होगा तो गले लगाऊंगी,
फिर नहीं बताना चाहिए था बोलके पचताऊंगी,
और सोच में पड़ जाऊंगी
की
क्या वो मुझे भूल गया ?
उसे मेरी याद आती तो होगी ना ?
इस वक्त वो भी यही सोच रहा होगा क्या ?
ये सब के चलते
मेरे इन जज्बातों से अंजान उसे
इन बातो की कोई फिक्र नहीं होगी।
यिसी लिए
आंखोंमें नमी
और दिलमें जज़्बात आने से पहले
मैं दिल की बात दोहोरौंगी
"क्या ही फर्क पड़ता है !"

रेडिओ का वो गाना
अब खत्म होचुका है...
और यादों के इस दास्तान में
ये चाय भी ठंडी होचुकी है...।

                                      - निशांत देवेकर

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