परंपरा !


ना वो किसी एक कि है
नाहीं उसका कोई रूप
ना उसमे कुछ अपना है
नहीं सिर्फ किसी दूसरे का...

जब जब उस दोस्त से मिलता हू
उसकी खूबसूरती का एहसास
हर नज़रिए को बदल देता है
मेरे थाली कि पुरन पोली
और उसके पन्ने पे सजा
डोसा सांबर
दोनों का मन भर देता है

Google search किये बिना
"गुढपाडव्याच्या हार्दिक शुभेच्छा"
और
"ऑनमआशमसगल"
कि शुभकामनाओं पे
वो दोनो को खुशियां देती है

आज उसे कुर्ता और सद्रा
मै फर्क समजता है
इसिके साथ
वेश्टी को लूंगी नहीं केहेते
में उससे सीखा हू

' परम्परा '
उसिकी बात कर रहा हूं
जिसे आप शायद
tradition केहेते हो
हर एक का
अपना तारीखा होता है
बगिचेमे बिखरे फूलों की तरहा
किसी को बस
अपने फूल पसंद है
किसी को
वो सभी तरह के फूलों से भरा बगीचा...

यहां बात सिर्फ अपने नजरिये की हैं ।
             
                               - निशांत देवेकर

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