आखिर क्यों ?


वो हमेशा से
उसकी आंखों में दुनिया देख पाता,
जुल्फों को सेहेलाते हुए
उन्हीं में खो जाता,
उसकी मेहेक से
ये अपने सासो को संवरता
और उसकी बाहों मैं लिपटकर
दो जिस्मो की मौजूदगी को नकारता,
मैं बस यही पूछता की
"कैसे?"
और वो हमेशा मुस्कुराकर
यिसे "प्यार" बताता।
पर मुझे
मुझे जुल्फें बस जुल्फें लगती,
मैं अखोमे सिर्फ
नमी को देख पाता हूं,
किसी की महेक का
मेरे सासो पे कोई काबू नहीं,
और लिपटकर
मेरी रूह किसीसे रूबरू नहीं होती,
तो ये प्यार...
क्या हर किसी के लिए अलग है ?
की मेरे समझ से परे ?
उससे मुलाकात अभी बाकी है ?
या फिर शायद अभी मैं तैयार नहीं ?
उसने कहा था प्यार सुलझन सा है,
उसमे कोई सवाल नही होते।
तो आखिर क्यों मुझे ये प्यार,
खुद किसी सवाल सा लगता है !
आखिर क्यों ?
           
                                  - निशांत देवेकर


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